रेलवे स्कूलों के प्रति ऐसा क्यों है रेल प्रशासन का रवैया!

“रेलवे स्कूलों को बचाने के लिए हम अपनी अंतिम सांस तक कोशिश करेंगे!” -प्रेमपाल शर्मा

एक राष्ट्र की गरीबी को करोड़पतियों की संख्या से नहीं, बल्कि गरीबी की स्थिति, स्वास्थ्य सेवाओं की व्यापकता, पब्लिक स्कूलों की दक्षता और उन लोगों की संख्या से मापा जाता जो सार्थक पढ़ाई-लिखाई करके, शिक्षित होकर स्वयं रोजगार करने सहित देश की उन्नति में सहायक बनते हैं। इसी स्तर पर यह बात रेलवे जैसे बड़े सरकारी संस्थानों पर भी लागू होती है।

रेलवे का कार्मिक विभाग रेलवे स्कूलों की उचित देखभाल करने के बजाय उन्हें दोयम दर्जे का समझकर उनके अध्यापकों को उचित सम्मान नहीं देता। अध्यापक को समाज में जो सम्मान का स्थान प्राप्त है, रेलवे में उसे कुछ नहीं समझा जाता। रेलवे स्कूलों में अधिकांश रेलकर्मियों/अधिकारियों के ही बच्चे पढ़ते हैं, वह भी इसलिए कि अन्य स्कूलों की अपेक्षा रेलवे स्कूलों में न केवल पढ़ाई का स्तर एवं वातावरण बेहतर है, बल्कि बच्चों की सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी उन्हें रेलवे स्कूल ज्यादा सुरक्षित लगते हैं।

इस मामले में सेंट्रल रेलवे स्कूल, कल्याण का कोई सानी नहीं है। इस स्कूल में वह सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं जो बड़े-बड़े पांच सितारा निजी स्कूलों में भी बमुश्किल से मिलेंगी। सरकारी स्कूलों की तो इनमें कहीं कोई गिनती ही नहीं है। इस स्कूल में पढ़ने वाले कुल बच्चों की संख्या करीब 2000 है। इसमें से 68% से ज्यादा बच्चे रेलकर्मियों के हैं। इस स्कूल ने जितना अच्छा पढ़ाई का वातावरण बनाया है, उतना ही ज्यादा शानदार रिकार्ड भी कायम किया है। कंप्यूटर शिक्षा के लिए राष्ट्रपति अवार्ड से लेकर अन्य कई राष्ट्रीय स्तर के दुर्लभ अवार्ड और रिवार्ड हासिल किए हैं। इसमें ग्रीन बिल्डिंग सस्टेनेबिलिटी हेतु वह प्रतिष्ठित विश्वस्तरीय प्लेटिनम अवार्ड भी शामिल है, जो कि रेल भवन और छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस को भी नहीं प्राप्त हो पाया है।

सेंट्रल रेलवे स्कूल कल्याण की स्थापना को 105 साल पूरे हो चुके हैं। इस स्कूल के किसी भी स्तर की बराबरी पूरी भारतीय रेल का कोई रेलवे स्कूल नहीं कर सकता, मगर इसके स्तर का कोई स्कूल देश के केंद्रीय एवं राज्य स्तरीय सार्वजनिक क्षेत्र में भी नहीं हो सकता है। यह उपलब्धि यहां के प्रिंसिपल और अध्यापकों के अथक परिश्रम का परिणाम है। इसी के फलस्वरूप आज यहां पहली कक्षा से आठवीं कक्षा तक एडमीशन लेने के लिए पांच सौ से ज्यादा बच्चे प्रतीक्षा सूची में हैं।

प्रतीक्षारत इन सैकड़ों बच्चों में से एक भी बच्चा ‘बाहरी’ नहीं है। परंतु मध्य रेलवे के कुछेक मूढ़धन्य कार्मिक अधिकारियों की मूढ़ता के चलते इन बच्चों की प्रतीक्षा न केवल लंबवत होती जा रही है, बल्कि उनके मन में “न इधर के, न उधर के” रह जाने जैसी आशंका पैदा हो रही है, क्योंकि यह सब अन्य निजी स्कूलों से अपनी टीसी लेकर यहां एडमीशन लेने के लिए चार महीने से कतार में खड़े हैं।

हाल ही में एक चर्चा के दौरान रेलवे बोर्ड के एक शीर्ष अधिकारी ने यह स्पष्ट किया कि रेलवे स्कूलों को रेल से विलग नहीं किया जाएगा, तथापि कुछ कार्मिक अधिकारियों का रवैया रेल स्कूलों के प्रति सौतेला ही बना हुआ है। वे स्कूल के किसी भी कार्य को न तो वरीयता देते हैं, न ही यथोचित प्रोत्साहन। परंतु जब कुछ अच्छा होता है, तब उसका श्रेय लेने अवश्य आगे आ जाते हैं। यहां तक कि इनमें से कईयों की तो यह अपेक्षा भी रहती है कि रेलवे स्कूल का टीचर उनके बच्चे को उनके आवास में आकर रोज मुफ्त ट्यूशन पढ़ाया करे! हम जानते हैं कि कुछ ने ऐसा करवाया भी है।

तथापि वे रेलवे स्कूलों और उनके अध्यापकों को वह वरीयता और सम्मान नहीं देते हैं, जो कि उन्हें वास्तव में मिलना चाहिए। शायद वह चाहते हैं कि अन्य विभागों के अधिकारियों और कर्मचारियों की तरह स्कूलों के प्रिंसिपल और अध्यापक भी बार-बार आकर उनकी चरण-वंदना करें, जी-हुजूरी करें, उनकी चिरौरी-विनती करें! चरण पखारें! मगर वह यह भूल जाते हैं कि स्कूल का प्रिंसिपल या अध्यापक अपनी गरिमा को ध्यान में रखते हुए ऐसा नहीं करेगा! उसका दर्जा समाज और व्यवस्था में सबसे ऊपर होता है। अधिकारी भले ही उससे ऊंचे पद पर विराजमान हों, मगर रहेंगे सदैव उससे नीचे ही!

यहां उल्लेखनीय है कि रेलवे स्कूल भुसावल के प्रिंसिपल की पोस्ट पिछले लगभग दो साल से खाली है! मगर मध्य रेलवे के कार्मिक विभाग ने उसे भरने का कोई प्रयास नहीं किया। रेलवे स्कूल कल्याण के प्रिंसिपल को बहुत पहले जेएजी पदोन्नति मिल जानी चाहिए थी, मगर नहीं मिली। यह मध्य रेलवे के कार्मिक विभाग और उसके संबंधित अधिकारियों की अक्षम्य लापरवाही है।

रेलवे स्कूल कल्याण ने जो प्रगति की, जो उपलब्धियां हासिल कीं, उसमें डीआरएम/जीएम का योगदान भले रहा, मगर यहां यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इसमें मध्य रेलवे कार्मिक विभाग का योगदान नगण्य है। यह बात सौ प्रतिशत सही है। कई सालों से किसी भी रेलवे स्कूल को रेलमंत्री या रेलवे बोर्ड स्तर के पुरस्कार के लिए नामित नहीं किया गया। रेलवे बोर्ड की गाइडलाइन के अनुसार पिछले तीन सालों से बेस्ट स्टूडेंट, बेस्ट टीचर, बेस्ट प्रिंसिपल, बेस्ट स्कूल को किसी भी स्तर पर पुरस्कृत नहीं किया गया! यह न केवल कार्मिक अधिकारियों की सबसे बड़ी कोताही है, बल्कि इससे यह भी जाहिर है कि रेलवे स्कूलों के प्रति उनकी सोच क्या है!

उल्लेखनीय है कि पिछले करीब पंद्रह सालों में मुंबई मंडल, मध्य रेलवे के चार डीआरएम ने रेलवे स्कूल कल्याण के प्रिंसिपल का नाम रेलमंत्री अवार्ड के लिए नामित करके मध्य रेल कार्मिक मुख्यालय को अग्रसारित किया था। वर्तमान डीआरएम ने भी किया है। और केवल प्रिंसिपल का ही नहीं, बल्कि नियमानुसार बेस्ट स्टूडेंट, बेस्ट टीचर और स्कूल की अन्य गतिविधियों को भी नामांकित किया गया था। परंतु मध्य रेल कार्मिक मुख्यालय में बैठे कुछ मूढ़ कार्मिक अधिकारियों को रेलवे स्कूल से न जाने क्या खुंदक है कि उन्होंने इसे आगे नहीं बढ़ाया! यह न केवल जांच का विषय है, बल्कि विचारणीय भी है!

वस्तुत: देखा जाए तो कहीं न कहीं यह कमी उन डीआरएम्स की भी है, क्योंकि उन्होंने अपने प्रस्ताव को फॉलो नहीं किया। मात्र रूटीन औपचारिकता निभाकर चुप बैठ गए! जबकि यह केवल उन्हें ही ज्ञात होता है कि उनके मातहतों ने क्या और कितना सर्वश्रेष्ठ योगदान किया है! अतः डीआरएम की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने प्रस्ताव का पीछा करें। अगर मुख्यालय ने उसे आगे नहीं बढ़ाया है, अथवा वह उनके प्रस्ताव को उपयुक्त नहीं मानता है, तो उससे स्पष्टीकरण मांगें कि क्यों और किस आधार पर उनका प्रस्ताव उपयुक्त नहीं पाया गया! क्यों उनकी अनुशंसा को दरकिनार किया गया! कार्मिक मुख्यालय में बैठा कोई पूर्वाग्रही अधिकारी इस तरह डीआरएम के किसी प्रस्ताव और अनुशंसा को बिना जीएम और बोर्ड को फारवर्ड किए कैसे रद्दी में डाल सकता है!

इन तमाम विसंगतियों और कोताहियों के लिए जोनल कार्मिक अधिकारी ही केवल जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि इसके लिए रेलवे बोर्ड का संबंधित निदेशालय और वहां बैठे कतिपय अधिकारी भी जिम्मेदार हैं। यही वजह है कि रेलवे स्कूलों के प्रधानाध्यापकों और मुख्याध्यापकों की विभागीय पदोन्नति समिति (डीपीसी) 1980 से लेकर आज तक, यानि पिछले 42 वर्षों में अब तक एक बार भी गठित नहीं हुई।

किसी भी व्यक्ति को जब उसका यथोचित सेवालाभ और प्रोत्साहन नहीं मिलेगा, तब वह व्यवस्था की प्रगति में अपना उचित योगदान कैसे दे पाएगा! इसके बावजूद रेलवे स्कूल कल्याण को सर्वोत्तम स्कूल बनाने में इसके प्रिंसिपल और अध्यापकों ने अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दिया है। यह त्याग केवल एक गुरु अर्थात अध्यापक ही कर सकता है। यह बात पीसीपीओ/म.रे. जैसे कार्मिक अधिकारियों को समझनी चाहिए कि जब तक दूसरों का भला नहीं करोगे, दूसरों के प्रति सद्भाव नहीं रखोगे, तब तक खुद का कोई भला नहीं होगा!

तथापि जब पूछा गया कि ऐसा क्यों हुआ, इसका यथोचित उत्तर किसी के पास नहीं है, उनके पास भी नहीं, जो रेलवे स्कूलों के कस्टोडियन (कार्मिक अधिकारी) हैं! रेल प्रशासन की रेलवे स्कूलों के प्रति यह अन्मनस्कता ही असल में इस सारी कोताही के लिए उत्तरदाई है। वह भी तब, जब इन स्कूलों में उनके ही बच्चों का, और देश-समाज के भावी होनहार नौनिहालों का भविष्य गढ़ा जा रहा है।

सेंट्रल रेलवे स्कूल, कल्याण की प्रगति का अवलोकन

https://crskyn.org/swachhvidyalaya.html

सेंट्रल रेलवे स्कूल कल्याण की प्रगति और विकास के लिए इसके प्रिंसिपल और अध्यापकों द्वारा किए गए अथक परिश्रम को कोई भी संवेदनशील व्यक्ति उपरोक्त लिंक के माध्यम से बहुत अच्छी तरह और गहराई से समझ सकता है। इसमें सौ से ज्यादा पेज हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के “स्वच्छ भारत मिशन” का अक्षरशः पालन करते हुए यह स्कूल वास्तव में वर्षों की गंदगी और कचरे को साफ करते हुए देश का प्रथम स्वच्छ स्कूल कैसे बना, इसे प्रत्येक रेलकर्मी और अधिकारी को तो अवश्य देखना ही चाहिए, बल्कि रेल प्रशासन में शीर्ष पर बैठे लोगों को भी देखना चाहिए, तब उन्हें शायद अपनी इस महत्वपूर्ण थाती, अपने महत्तम सामाजिक सरोकार, अपनी जिम्मेदारी और भावी पीढ़ी के लिए अपने दायित्व का वास्तविक आभाष हो पाएगा।

अंतिम सांस तक कोशिश करेंगे!

स्थापना निदेशालय, रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) में संयुक्त सचिव के स्तर से सेवानिवृत्त हुए सुपरिचित लेखक, समीक्षक और साहित्यकार श्रीयुत प्रेमपाल शर्मा कहते हैं, “रेलवे स्कूलों को बचाने के लिए हम अपनी अंतिम सांस तक कोशिश करेंगे!”

वह कहते हैं कि “लगभग दस वर्ष पहले रेलवे बोर्ड में रेलवे के स्कूलों का कामकाज देखते हुए मैंने यह प्रश्न उठाये थे कि कभी किसी रेलवे स्कूल के शिक्षक/प्रिंसिपल को मंत्री पुरस्कार आदि क्यों नहीं दिया गया? क्या उनका योगदान इतना कम है? या कोई उधर देखना ही नहीं चाहता? आखिर रेल प्रशासन का अपने स्कूलों के प्रति इतना सौतेला व्यवहार क्यों है?”

उन्होंने यह भी कहा कि “अफसोस इस बात का भी है कि जो सरकारी स्कूलों से पढ़कर आए अधिकारी हैं, और जो अपने को बड़ा तीस मार खां अफसर समझते हैं, वे भी रेलवे के स्कूलों को हिकारत से देखते हैं। यह उनके पारिवारिक संस्कार हैं या कुछ और, कहा नहीं जा सकता, मगर इनसे अच्छे तो ब्रिटिश अधिकारी थे – जो यह उपयोगी व्यवस्था बनाकर गए, जो रेल कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य का ध्यान रखते थे और बिना किसी भेदभाव के उन्हें पुरस्कृत भी करते थे!”
क्रमशः

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी

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