क्या होता है घर का मुखिया ने होने का अर्थ!

17 जोनों में से 9 जोनल जीएम के पद खाली हैं। यानि कुल 8 जीएम 17 जोनों का कामकाज देखे रहे हैं। ऐसे में वे न घर के रह गए हैं, न घाट के!

सुरेश त्रिपाठी

जिस प्रकार घर का कोई मुखिया न होने से घर बरबाद होता है, उसी प्रकार व्यवस्था का कोई रखवाला नहीं होने से व्यवस्था भी बरबाद होती है। अनुशासनहीनता बढ़ती है। मनमानी होती है। अफरा-तफरी मचती है। और अंततः पूरी व्यवस्था चरमराकर बैठ जाती है।

यही हाल भारतीय रेल का हो रहा है। जिस तरह सुनीत शर्मा जैसे अकर्मण्य अधिकारी के शीर्ष पर पहुंचने के बाद भारतीय रेल लावारिस जैसी हालत में पहुंच गई, उसी प्रकार लंबे समय से महाप्रबंधकों की पोस्टिंग न होने से खाली और भरे हुए लगभग सभी जोन लावारिस जैसी हालत में हैं। जहां कोई किसी का माई-बाप, अर्थात रोकने-टोकने वाला नहीं है।

मंडल हो या मुख्यालय, सभी स्तर पर अदने-अदने से अधिकारियों-कर्मचारियों की मनमानी चरम पर है। कहीं किसी का किसी पर कंट्रोल नहीं है। मुख्यालयों में चार-पांच एचओडी और मंडलों में दो-तीन-चार एडीआरएम तथा हर ब्रांच में दो-तीन ब्रांच अफसरों की यह दोहरी-तिहरी व्यवस्था बनाकर पूरी व्यवस्था को तो पहले ही अनियंत्रित कर दिया गया है।

अब मंडल स्तर पर ब्रांच अफसरों की स्वैचछाचारिता और मनमानी पर किसी का कोई अंकुश इसलिए नहीं रह गया है, क्योंकि हर कोई अपने-अपने लिए ज्यादा से ज्यादा समेटने में व्यस्त है। कुछेक अपवादों को छोड़कर ऐसा इसलिए है क्योंकि मंडल मुखिया स्वयं इस बंदरबांट में शामिल हो गए हैं।

मंडल स्तर की व्यवस्था बदल गई है। अब दो-दो, तीन-तीन ब्रांच अफसरों के रहते, भले ही उनके कार्यक्षेत्रों को अलग कर दिया गया है, मगर अब वे अनियंत्रित हैं, क्योंकि उनमें से कोई एक-दूसरे के प्रति जवाबदेह नहीं है और डीआरएम को वे कुछ समझते नहीं हैं, मगर इस गैर-जवाबदेह व्यवस्था के चलते संबंधित विभागों के इनके मातहत कर्मचारी असमंजस में रहते हैं, क्योंकि उन्हें कोई भी बुलाकर हड़का लेता है। इस बेतुकी व्यवस्था के कारण स्टाफ असहज और परेशान है।

उदाहरण के लिए उत्तर मध्य रेलवे का झांसी मंडल रेल राजस्व अर्जन के मामले में तीनों मंडलों में सबसे आगे इसलिए है, क्योंकि वहां नये-नये प्रयोग किए जाते रहते हैं। शायद यह पूर्व में इसके मध्य रेलवे के अधीन रहने का प्रभाव है। हमेशा नए-नए प्रयोग, व्यवस्था और काफी हद तक पारदर्शिता के कारण झांसी मंडल का वाणिज्य विभाग रेल राजस्व अर्जन में अग्रणी है।

अब जहां तक बात प्रयागराज मंडल, उत्तर मध्य रेलवे की है, तो यहां बेतुके प्रबंधन और आलतू-फालतू के गैर-उत्पादक कार्यों और अभियानों में स्टाफ को झोंककर मैनपावर का दुरुपयोग किया जा रहा है।

उत्तर मध्य रेलवे, प्रयागराज मंडल के वाणिज्य विभाग के कुछ नमूने देखें – “20 जुलाई 2021 के एक हस्तलिखित आदेश में कहा गया है कि 15 दिनों का एक विशेष अभियान चलाकर चेन पुलिंग (एसीपी) की घटनाएं रोकने के लिए वाणिज्य निरीक्षक अपने-अपने कार्यक्षेत्र के ग्राम प्रधानों/सरपंचों से वार्ता/बैठक करें।”

जब इसके लिए रेलवे एक्ट में आरपीएफ को पावर दिया गया है और वह इस दिशा में काम कर भी रहे हैं, फिर वाणिज्य विभाग इस काम में मैनपावर का वेस्टेज क्यों कर रहा है? उसे रेल राजस्व के अर्जन वाले कार्यो में ही क्यों नहीं लगाया रहा?

इसी प्रकार 26 जुलाई 2021 का एक अन्य हस्तलिखित मैसेज है कि “वाणिज्य निरीक्षक अपने-अपने कार्यक्षेत्र में गाड़ियों पर जाकर चेक करें कि कोई व्यक्ति शराब पीकर तो नहीं चल रहा है।”

अब ऐसे मूढ़धन्य अधिकारियों को कौन बताए कि गाड़ी में चेकिंग स्टाफ और आरपीएफ एस्कॉर्ट ड्यूटी पर रहता है, तो ये काम तो उनको करना है!

इसी तरह 27 जुलाई 201 का एक और मैसेज है कि सभी सेक्शन सीएमआई और सीआईटी यात्री शिकायत की दशा में गाड़ी पर जाकर उससे डीटेल्स लें।” जबकि शिकायत पुस्तिका और एफआईआर दोनों चेकिंग स्टाफ के पास मौजूद रहती है। साथ ही आरपीएफ एस्कॉर्ट की भी ड्यूटी रहती है। ऐसे में सीआईटी या सुपरवाइजर वहां जाकर क्या कर लेगा?

ये कुछ बानगी हैं कि मंडलों पर मैनपावर का किस तरह दुरुपयोग किया जा रहा है और उसे गैर-उत्पादक कार्यों में लगाकर किस तरह रेल राजस्व का नुकसान किया जा रहा है। ऐसी दशा में रेल राजस्व अर्जन बेहतर कैसे होगा?

प्रयागराज मंडल में नित नए-नए घोटाले ही मिलते हैं। चाहे टेक्निकल विभाग की बात हो या नॉन-टेक्निकल। ये काम सिर्फ प्रयागराज मंडल तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पूरी भारतीय रेल में बड़े-बड़े स्टेशनों पर ऐसा ही खेल हो रहा है।

इसका सीधा अर्थ यह है कि निकम्मे, नाकाबिल अधिकारियों को न तो स्वयं काम करना आता है, और न ही उन्हें यह पता है कि मातहतों से कैसे काम लेना है।

इसका अर्थ यह भी है कि जब घर का मुखिया ही नहीं है, तो न किसी को किसी से कोई डर होता है और न ही किसी को कोई मार्गदर्शन देने वाला, न लगाम लगाने वाला।

यही सब पूर्व रेलवे में भी हो रहा है, जहां जो होना चाहिए, वह तो नहीं हो रहा, जहां कार्यकारी जीएम स्वयं सभी प्रधान विभाग प्रमुखों को लेकर डीआरएम की पार्टी में सोमरस का आनंद ले रहे हैं। इस बारे में जब मीडिया द्वारा पूछा जाता है तो इसे स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ – जो कि तेरह महीने बाद अगले साल 15 अगस्त को मनाई जानी है – की रिहर्सल बता रहे हैं।

बेशर्मी और मनमानी की हद ये है कि यह पार्टी लॉकडाउन पीरियड में बिना किसी कोविड प्रोटोकॉल का पालन किए मनाई गई। इसका सीधा अर्थ यह है कि स्थानीय प्रशासन के साथ इसके लिए पहले ही सांठ-गांठ कर ली गई थी। तथापि सब कुछ जानकर भी रेलवे बोर्ड ने, और राज्य सरकार ने इस पर कोई कार्रवाई करना आवश्यक नहीं समझा।

वहीं सियालदाह और हावड़ा मंडल में – जहां केवल स्टाफ स्पेशल ट्रेनें चलाई जा रही हैं – बिना कोई लिखित आदेश दिए सर्वसामान्य लोगों को टिकट जारी किया जा रहा है। यह सब मुंहजबानी आदेश पर हो रहा है।

इससे एक तरफ रेलवे स्टेशनों पर अत्यंत भीड़ हो रही है, तो दूसरी तरफ टिकट बुकिंग कर्मचारियों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।

तथापि दोनों मंडल प्रभारियों सहित जीएम को कोई फर्क नहीं पड़ता। राज्य सरकार भी चुप है, क्योंकि उसके पास तो अंततः रेलवे अर्थात केंद्र सरकार को इस सबके लिए जिम्मेदार ठहराने का सरल ऑप्शन उपलब्ध है।

यही निरंकुश स्थिति लगभग हर जोनल रेलवे में है, क्योंकि 17 जोनों में से 9 जोनल जीएम के पद खाली हैं। यानि कुल 8 जीएम 17 जोनों का कामकाज देखे रहे हैं। ऐसे में वे न घर के रह गए हैं, न घाट के।

ऊपर से उनके जले में खाज रेलवे बोर्ड के ऊटपटांग दैनंदिन आदेश निर्देश नोटिफिकेशन उनका अलग सरदर्द होते हैं। ऐसे में कुल मिलाकर भारतीय रेल लगभग लावारिस हालत में पहुंच गई है, जहां न कोई अनुशासन रह गया है, न प्रशासन!

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