हिंदी साहित्यकारों का नोटिस लेना छोड़ दिया लोगों ने, आखिर क्यों?

श्रद्धांजलि इरफान! फिल्मी दुनिया के सितारे इरफान खान के जाने के बाद देश के कोने-कोने से जो आवाजें आई हैं, वह फिर इस बात को साबित करती हैं कि सच्ची मनुष्यता के सामने धर्म, संप्रदाय की दीवारें कोई मायने नहीं रखतीं। उन्होंने अपने जीवन से भी यही सिद्ध किया। सच्चे मायनों में पठान के घर में मारवाड़ी पैदा हुआ।

फिर शादी, संस्कार, जीवन, फिल्मों का चुनाव.. कोई भी पक्ष हो, कहीं कोई आक्रोश नहीं! यह उस मान्यता को सिद्ध करता कि “जब बात में दम हो, तो आवाज ऊंची नहीं करनी पड़ती। पहले पन्ने पर आने के लिए रोज-रोज किसी अपील और विरोध जुलूस में शामिल नहीं होना पड़ता!”

मैंने सन 80 के आसपास समानांतर सिनेमा कही जाने वाली चंद फिल्मों के बाद कुछ फिल्में पिछले दो-तीन सालों में ही देखी हैं रिटायरमेंट के बाद। विशेषकर इरफान, राजकुमार राव, संजय मिश्रा, संजय त्रिपाठी, आयुष्मान, नवाजुद्दीन, बोमन ईरानी.. की।

मैंने यह महसूस किया कि इनमें से किसी की पहली इच्छा पैसा कमाने की नहीं है। न नाम कमाने की। सिर्फ काम करने की रही है।

मुंबई जैसे महानगर का जीवन उनको कितना सेक्यूलर और जमीनी बनाए रखता है! इधर की इनकी फिल्मों ने विषयों की भी नई जमीन तलाशी है। और इसीलिए हिंदी फिल्में दुनिया भर में नाम कमा रही हैं। नामा भी।

सबसे बड़ी बात हिंदी को फैलाने में अप्रतिम योगदान भी दे रही हैं हिंदी फिल्में। हिंदी की संसदीय समितियों, हिंदी विभागों, विश्वविद्यालय के मुकाबले यह फिल्में कहीं ज्यादा कारगर ढ़ंग से यह काम कर रही हैं!

इसके बरअक्स हिंदी साहित्य और हिंदी के नामचीन साहित्यकारों पर भी नजर दौड़ाएं। निर्मल वर्मा के वाक्य को याद करें “हिंदी का लेखक अपने मुंह मियां मिट्ठू बन लेखन के बूते दुनिया की सब सुख-सुविधाएं पाना चाहता है, और यूरोप का लेखक सब कुछ छोड़कर सिर्फ लेखक बनना।”

40-50 साल तो मिल-मजदूर-मालिक की नकली (कुछ असली भी) फिल्मी कथाओं में निकल गए, फिर उस पर पुरस्कार पाने-दिलाने की असली जोड़-तोड़ में। सच्चे लेखन के बजाय उन्हें राजनीति का पुछल्ला बनने में गर्व और आनंद ज्यादा मिलने लगा है। श्मशान में तो पहुंचना ही था इन करतूतों से। हिंदी समाज को भी और हिंदी की किताबों को भी!

फिल्मों ने जहां हिंदी को फैलाया, हिंदी कविता ने उसे और डूबा दिया। पुरस्कार की दौड़ में जरूर हिंदी कविता सबसे आगे रही है “एक-एक को तीन-तीन”!

इरफान की मौत पर देश और अंग्रेजी समेत हर भाषा के मीडिया ने जो दुख की अभिव्यक्ति की है, किसी हिंदी के बड़े से बड़े साहित्यकार को सपने में भी मयस्सर नहीं हो सकती।

हिंदी के साहित्यकार को पहले तो कुछ दशकों से अंग्रेजी के किसी अखबार में भी कोई कोना नहीं मिलता था, अब तो हिंदी के अधिकतर अखबारों ने भी किसी के स्वर्गवासी होने पर नोटिस लेना छोड़ दिया है। क्यों? यह विचारणीय है।

अच्छी बातें किसी से भी सीखी जा सकती हैं!
हम सबके लिए यह आत्मनिरीक्षण का क्षण है!!

*प्रेमपाल शर्मा की फेसबुक वॉल से साभार