The decision ideally rests on the kind of questions

रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव ने ‘वंदेभारत’ ट्रेन के नए रेक को लेकर एक कार्यक्रम में यात्रा में समय की बचत पर कुछ क्विज प्रतियोगिता जैसा करते दिखे। इस कार्यक्रम का वीडियो एक वरिष्ठ अधिकारी ने भेजकर #Railwhispers की प्रतिक्रिया पूछी थी।

#Railwhispers ने उन्हें कोई प्रतिक्रिया देने के बजाय मंत्री जी से कुछ प्रश्न करते हुए उक्त वीडियो ट्विटर पर पोस्ट कर दिया। यह प्रश्न इस प्रकार थे-

1. अश्विनी वैष्णव जी, यही 3 सेकेंड बचाने के लिए क्या आरडीएसओ ने 3 साल खर्च (रिसर्च) किया?

2. क्या इसीलिए 4 साल से वंदेभारत ट्रेन का उत्पादन बंद था?

3. कृपया यह भी बताएं कि नई दिल्ली-वाराणसी के बीच यह 20 करोड़ अधिक महंगी ट्रेन कितने मिनट बचाएगी?

उपरोक्त तीनों प्रश्नों पर एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी ने अपनी जो महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया दी है, वह इस प्रकार है –

“This is a technical point that #Railwhispers have raised.

The savings we show in Rajdhanis, Shatabdis and now in Vande Bharat also have to do with path management.

Real reform in Railways would be monetisation of path – can start by putting a value on it.

Vande Bharat presents interesting debate which has raged for decades – are power heads (loco) or distributed power like EMU better.

Choice should in the short term be dictated by how best to use existing coaches and have a migration plan.

Are we heading for a situation like stranded surplus diesel locos and ICF make coaches?

With regards to coach furnishing and passenger touch and feel points – put aircraft furnishing – who stops us – and that can be done in any coach.

So the decision ideally rests on the kind of questions your tweet asks.”

एक और वरिष्ठ अधिकारी ने #Railwhispers के इस ट्वीट पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जो टिप्पणी भेजी – वह यह है –

“दिक्कत यही है कि ट्रैक, कोच, इंजन, सिग्नल, ओएचई, स्टेशन सब नए और महंगे परंतु आय वही की वही है। लागत (कॉस्ट) और लाभ (रिटर्न) में कोई संबंध (रिलेशन) ही नहीं रहा। एक बार हिम्मत करके लोकल, जनरल और स्लीपर श्रेणी का किराया तो बढ़ाया जाए। शर्म की बात ये है कि यह सब करने के बाद भी सुपरफास्ट की गति 55 किमी प्रति घंटा है। जब अधिकतम गति 110 किमी प्रति घंटा है तो सुपरफास्ट 75 किमी प्रति घंटा क्यों नहीं है? 55 किमी प्रति घंटा तो अब पैसेंजर की स्पीड होनी चाहिए!”

एक ट्विटर यूजर यात्री ने टिप्पणी की है –

“लखनऊ-बरेली के बीच सुपरफास्ट और अन्य कई ट्रेनें पहले साढ़े तीन घंटे का समय लेती थीं। अब हिमगिरि और अर्चना एक्सप्रेस जैसी ट्रेनें साढ़े चार से पांच घंटे ले रही हैं। यह भी कई बार और अधिक हो जाता है। ‘सुपरफास्ट’ तो अब ‘सुपर-स्लो’ अर्थात ‘बैलगाड़ी’ में बदल दी गई है!”

उपरोक्त दोनों वरिष्ठ अधिकारियों की ओपीनियन और एक यात्री की टिप्पणी रेलमंत्री के साथ ही रेल मंत्रालय के लिए भी महत्वपूर्ण है। प्रश्न उठता है, तभी उसका हल खोजा जाता है। प्रश्न अथवा प्रश्नकर्ता को दरकिनार करके कोई व्यवस्था प्रगति नहीं कर पाती। समग्र विकास के लिए एकीकृत सोच और विचार का होना आवश्यक है। परंतु वर्तमान व्यवस्था में देखने में यह आ रहा है कि केवल अपने एजेंडे के अलावा अन्य की राय का कोई महत्व नहीं है।

यही कारण है कि रेल इंजीनियर्स की जिस योग्य टीम ने वंदेभारत ट्रेन का विश्व ट्रेनसेट बाजार के सबसे कम कीमत वाले ट्रेनसेट का सफल निर्माण किया, सरकार, मंत्री, प्रधानमंत्री ने हर मंच से विश्व भर में इसका श्रेय लिया, उस टीम को न केवल बुरी तरह अपमानित किया गया, बल्कि उसका सर्विस कैरियर भी चौपट किया गया। इस कृत्य के जरिए एक बार फिर यह प्रमाणित किया गया कि यहां वास्तव में योग्यता, क्षमता, निष्ठा, समर्पण इत्यादि योग्यताओं का कोई मूल्य नहीं है। यहां केवल मंत्री का अपना एजेंडा चलता है।

यही कारण था कि जब वंदेभारत ट्रेन के दोनों रेक न केवल सभी प्रकार के परीक्षणों में सफल रहे, बल्कि सफलतापूर्वक दौड़ने लगे, तीन साल से दौड़ रहे हैं, अब तक इनमें कहीं कोई समस्या नहीं आई। इसे देखकर विश्व ट्रेनसेट बाजार में एकाधिकार रखने वाली बड़ी-बड़ी धुरंधर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपनी जमीन खिसकती नजर आई। उनका मानना था कि अगर इतना सस्ता और अच्छा ट्रेनसेट बाजार में आ गया, तो उन्हें अपना अस्तित्व बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा।

इसीलिए बड़े स्तर पर लॉबिंग शुरू हो गई, और अपने उत्कृष्ट प्रोडक्ट एवं निष्ठावान इंजीनियर्स को साइड लाइन करके अर्थात इस पूरे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट को डिरेल कर, ठंडे बस्ते में डालकर ट्रेनसेट के आयात का निर्णय लिया गया। परंतु यह ‘लोमड़ चाल’ कामयाब नहीं हो पाई, क्योंकि इसका उद्देश्य स्वार्थजनित था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी कहीं न कहीं इसका आभास हो चुका था। अतः उन्होंने रेल मंत्रालय का नेतृत्व ही बदल दिया।

रेल मंत्रालय के नए नेतृत्व यानि नए रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव ने जब वंदेभारत ट्रेनों के ‘इन-हाउस’ निर्माण की घोषणा की, तो उनके इस निर्णय का देश भर में जोरदार स्वागत हुआ। ऐसा लगा कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई के साथ पीएमओ में काम कर चुके इस ऑलराउंडर पूर्व आईएएस अधिकारी में निर्णय लेने की क्षमता है, इसलिए भी उनका पूरा सम्मान और समर्थन हुआ।

परंतु जब उन्होंने एक चुके हुए पूर्व रेल अधिकारी को अपना सलाहकार बनाया और फिर मैनडेट को दरकिनार कर उसे ‘छाया रेलमंत्री’ के तौर पर सारी छूट दे दी, तब इनका भी अपना एजेंडा सामने आ गया, जिसके परिणामस्वरूप आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर 75 वंदेभारत ट्रेनें दौड़ाने का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपना साकार नहीं हो पाया, तब पता चला कि ‘लंका में सब बावन हाथ हैं और सबके अपने-अपने एजेंडे भी हैं! सरकार या मंत्री के एक गलत निर्णय देश की प्रगति और व्यवस्था की उन्नति का कितना बड़ा ह्रास करता है, और नीति एवं नीयत को भी उजागर कर देता है!’ यह उक्त पूर्व अधिकारी की नियुक्ति से सामने आ गया। क्रमशः

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी

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