“We oppose the move to withdraw/limit the use of inspection carriages”

सैलून के इस्तेमाल को सीमित करने के रेलवे बोर्ड के आदेश का SWROA ने किया विरोध

निकम्मी/नाकारा यूनियनों/फेडरेशनों की आस छोड़कर रेलवे के निजीकरण के खिलाफ मैदान में खुद उतरें रेलकर्मी और अधिकारी

सरकार की पिछलग्गू बनी यूनियनों/फेडरेशनों के भरोसे बैठे रहे रेलकर्मी, तो रेलवे का बंटाधार होना निश्चित है

अभी एक दिन पहले ही 25 अक्टूबर को रेलवे बोर्ड ने पत्र सं. 2017/कोचिंग/33/13 जारी करके सैलून (आरए) के इस्तेमाल को सीमित और रेगुलेट करने का आदेश सभी जोनल रेलों को जारी किया था। परंतु अगले दिन ही इसका विरोध शुरू हो गया।

दक्षिण पश्चिम रेलवे ऑफिसर्स एसोसिएशन (SWROA) ने 26 अक्टूबर को हुबली मुख्यालय में एक अपरिहार्य बैठक बुलाकर उसमें एक प्रस्ताव पारित करके रेलवे बोर्ड के इस फैसले का कड़ा विरोध किया है। इस प्रस्ताव पर दक्षिण पश्चिम रेलवे ऑफिसर्स एसोसिएशन के सभी पदाधिकारियों सहित कुल 30 अधिकारियों ने हस्ताक्षर किए हैं।

रेलवे बोर्ड को लिखे गए पत्र में उक्त प्रस्ताव का उल्लेख करते हुए एसोसिएशन ने मांग की है कि-

Since all of us sincerely believe that Inspection Carriages are essential for monitoring the safety assets of railways and disaster management. We oppose the move to withdraw/limit the use of inspection carriages.”

In view of the above this Association request you to repeal the instructions issued in this regard.

हालांकि इससे पहले भी रेलवे बोर्ड और रेलमंत्री के कुछ दिग्भ्रमित सलाहकारों ने सैलूनों के इस्तेमाल को लेकर रेल अधिकारियों को काफी बदनाम किया है। अब फिर से सस्ती पब्लिसिटी के लिए वही सगूफा छोड़ा गया है। जबकि रेलवे बोर्ड में बैठे मूढ़ों, जो कि खुद इन सैलूनों का पर्याप्त दुरुपयोग करते हैं और जोनों/मंडलों में तैनाती के दौरान इनका भरपूर इस्तेमाल करके आए होते हैं, को भी बखूबी मालूम होता है कि जोनों/मंडलों में सैलूनों की क्या अहमियत है। तथापि वे मंत्री, जिसे रेलवे को बरबाद करने की धुन सवार है, की हां में हां मिलाते हुए अपनी दुष्ट/भ्रष्ट जुबान नहीं खोल पाते हैं।

होना तो यह चाहिए कि पीसीसीएम, पूर्वोत्तर रेलवे जैसे महाजुगाड़ू और महाभ्रष्ट अधिकारियों, जिन्होंने सैलूनों का इस्तेमाल अपने बाप द्वारा खरीदी गई किसी लक्जरी कार की तरह किया, को तुरंत उल्टा लटका दिया जाना चाहिए, जिससे उनकी मनमानी कारस्तानी पर लगाम लग सके। परंतु ऐसी किसी शिकायत अथवा खबर पर तत्काल कोई कड़ा कदम उठाने और निर्धारित नियमों का पालन करने की हिम्मत मंत्री से लेकर संत्री तक किसी में इसलिए नहीं है, क्योंकि हमाम में सब नंगे हैं।

रेलवे की संरक्षा, सुरक्षा, निर्माण इत्यादि रेल संपत्तियों के निरीक्षण और आपदा प्रबंधन जैसी आपात स्थितियों में सैलूनों की रेलवे में क्या आवश्यकता है, इससे हर अधिकारी बहुत अच्छी तरह वाकिफ है। यह बात अलग है कि अहंमन्य मंत्री के सामने इन सबकी घिग्घी बंधी हुई है। मंत्री तो रेलवे का बंटाधार करने पर उतारू है, उसे नहीं पता है कि रेलवे का बंटाधार होगा, तो देश का भी होगा, क्योंकि इतनी बड़ी संगठित परिवहन सेवा एक छत के नीचे आज तक इस देश में अन्य कोई नहीं बन पाई है।

जिस निजी क्षेत्र को सब कुछ सौंप देने के लिए यह सरकार और मंत्री बहुत उतावले हो रहे हैं, वह यदि इतना ही सक्षम, काबिल और भरोसेमंद है, तो उसकी अपनी कंपनियां क्यों 10-20 सालों में ही डूब जाती हैं? वह आजादी के बाद भी देश में सरकारी रेलवे के समानांतर ऐसी ही अन्य कोई परिवहन प्रणाली क्यों नहीं खड़ी कर पाया?

जबकि भारतीय रेल पिछले 165 वर्षों से लगातार एक छत के नीचे पूरी सक्षमता के साथ इस देश के सर्वसामान्य नागरिक को अपनी सस्ती-सुलभ-सुरक्षित सेवा प्रदान कर रही है। अतः रेलवे की बरबादी और निजीकरण न रेल हित में है, न देश हित में है, और न ही रेलयात्रियों (नागरिकों) के हित में है। यह सिर्फ नेताओं और उनके चहेते उद्योग घरानों के ही हित में है, जिसके लिए वे इसे बरबाद करने पर उतारू हैं। इसकी शुरुआत इन्होने पिछली बार 2003-04 में भारतीय रेल को सात नए जोनों में तोड़कर कर दी थी।

यदि रेलकर्मी और अधिकारी सासाराम के छात्रों की तरह रेलवे के निजीकरण के खिलाफ स्वत: स्फूर्त आंदोलन पर नहीं निकलेंगे, और अब भी यदि वे निकम्मी, नाकारा हो चुकी यूनियनों/फेडरेशनों के भरोसे बैठे रहेंगे, तो रेलवे की बरबादी के कलंक से वे भी नहीं बच पाएंगे।

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